अब तृतीय सूक्त का प्रारम्भ करते हैं। इसके आदि के मन्त्र में अग्नि और जल को अश्वि नाम से लिया है-
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्या के चाहनेवाले मनुष्यो ! तुम लोग (द्रवत्पाणी) शीघ्र वेग का निमित्त पदार्थविद्या के व्यवहारसिद्धि करने में उत्तम हेतु (शुभस्पती) शुभ गुणों के प्रकाश को पालने और (पुरुभुजा) अनेक खाने-पीने के पदार्थों के देने में उत्तम हेतु (अश्विना) अर्थात् जल और अग्नि तथा (यज्वरीः) शिल्पविद्या का सम्बन्ध करानेवाली (इषः) अपनी चाही हुई अन्न आदि पदार्थों की देनेवाली कारीगरी की क्रियाओं को (चनस्यतम्) अन्न के समान अति प्रीति से सेवन किया करो। अब अश्विनौ शब्द के विषय में निरुक्त आदि के प्रमाण दिखलाते हैं-(या सुरथा) हम लोग अच्छी अच्छी सवारियों को सिद्ध करने के लिये (अश्विना) पूर्वोक्त जल और अग्नि को, कि जिनके गुणों से अनेक सवारियों की सिद्धि होती है, तथा (देवा) जो कि शिल्पविद्या में अच्छे-अच्छे गुणों के प्रकाशक और (दिविस्पृशा) सूर्य्य के प्रकाश से युक्त अन्तरिक्ष में विमान आदि सवारियों से मनुष्यों को पहुँचानेवाले होते हैं, (ता) उन दोनों को शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये ग्रहण करते हैं। (न हि वामस्ति) मनुष्य लोग जहाँ-जहाँ साधे हुए अग्नि और जल के सम्बन्धयुक्त रथों से जाते हैं, वहाँ सोमविद्यावाले विद्वानों का विद्याप्रकाश निकट ही है। (अथा०) इस निरुक्त में जो कि द्युस्थान शब्द है, उससे प्रकाश में रहनेवाले और प्रकाश से युक्त सूर्य्य अग्नि जल और पृथिवी आदि पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं, उन पदार्थों में दो-दो के योग को अश्वि कहते हैं, वे सब पदार्थों में प्राप्त होनेवाले हैं, उनमें से यहाँ अश्वि शब्द करके अग्नि और जल का ग्रहण करना ठीक है, क्योंकि जल अपने वेगादि गुण और रस से तथा अग्नि अपने प्रकाश और वेगादि अश्वों से सब जगत् को व्याप्त होता है। इसी से अग्नि और जल का अश्वि नाम है। इसी प्रकार अपने-अपने गुणों से पृथिवी आदि भी दो-दो पदार्थ मिलकर अश्वि कहाते हैं। (तथाऽश्विनौ) जबकि पूर्वोक्त अश्वि धारण और हनन करने के लिये शिल्पविद्या के व्यवहारों अर्थात् कारीगरियों के निमित्त विमान आदि सवारियों में जोड़े जाते हैं, तब सब कलाओं के साथ उन सवारियों के धारण करनेवाले, तथा जब उक्त कलाओं से ताड़ित अर्थात् चलाये जाते हैं, तब अपने चलने से उन सवारियों को चलानेवाले होते हैं, उन अश्वियों को तुर्फरी भी कहते हैं, क्योकि तुर्फरी शब्द के अर्थ से वे सवारियों में वेगादि गुणों के देनेवाले समझे जाते हैं। इस प्रकार वे अश्वि कलाघरों में संयुक्त किये हुए जल से परिपूर्ण देखने योग्य महासागर हैं। उनमें अच्छी प्रकार जाने-आने वाली नौका अर्थात् जहाज आदि सवारियों में जो मनुष्य स्थित होते हैं, उनके जाने-आने के लिये होते हैं॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में ईश्वर ने शिल्पविद्या को सिद्ध करने का उपदेश किया है, जिससे मनुष्य लोग कलायुक्त सवारियों को बनाकर संसार में अपना तथा अन्य लोगों के उपकार से सब सुख पावें॥१॥